Zindagi Shayari-1
तू नही तो ज़िंदगी मैं और क्या रह जाएगा
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा
कीजिए क्या गुफ्तगू क्या उन से मिल कर सोचिए
दिल-शिकसता ख्वाहिशों का ज़ायक़ा रह जाएगा
दर्द के सारी तहें और सारे गुज़री हादसे
सब धुआँ हो जाएँगे एक वक़ीया रह जाएगा
ये भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर
यूँ भी होगा खुद उसी में एक खाला रह जाएगा
दायर-ए-इनकार के इक़रार के सरगोषियाँ
ये अगर टूटे कभी तो फासला रह जाएगा
Zindagi Shayari-2
हुमारा दिल सवेरे का सुनहेरा जाम हो जाए,
चिरागो की तरह आँखें जले जब शाम हो जाए,
कभी तो आसमान से चाँद उतरे जाम हो जाए,
तुम्हारे नाम की एक खूबसूरत शाम हो जाए,
अजब हालत थे यू सोडा हो गया आख़िर,
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नेलाम हो जाए,
समुंदर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दे हुमको,
हवायें तेज़ हो ओर कश्टियो में शाम हो जाए,
मुझे मालूम है इसका ठिकाना फिर कहा होगा,
परिंदा आसमान च्छुने में जब नाकाम हो जाए,
उजाले अपनी यादो के हुमारे साथ रहने दो,
नज़ाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
Zindagi Shayari-3
ज़िंदगी तुझ को मानने निकले
हम भी किस दर्जा दीवाने निकले
कुछ तो दुश्मन थे मुखालिफ़-साफ में
कुछ मेरे दोस्त पुराने निकले
नज़रअंदाज़ किया है उस ने
खुद से मिलने के बहाने निकले
बे-बसरत है ये बस्ती यारो
आईना किस को दिखाने निकले
इन अंधेरोन में जियोगे कब तक
कोई तो शमा जलने निकले
Zindagi Shayari-4
तेरे बगैर ये अब ज़िंदगी कहाँ गुज़री
क़दम क़दम पे तेरे साथ का गुमान गुज़री
ये दिन जो धीरे से फिसला तो शाम के मंज़र
तेरे बगैर उदासी के दरमियाँ गुज़री
वो अश्क हूँ की सर-ए-रह गिर गया था कभी
उठा सका ना कोई कितने कारवाँ गुज़री
मैं खुश्क होके बिखरता रहा हूँ पैरों में
बहुत ज़माना हुआ मुझ पे कश्टियाँ गुज़री
तेरे बदन का आलओ हो मेरी साँसों में
कभी वो लम्हा भी इक बार जान-ए-जान गुज़री
ये बात अब भी नही है किसी से कहने के
तमाम सजदे तेरे दर से रायगन गुज़री
Zindagi Shayari-5
सर से चादर बदन से क़बा ले गई
ज़िंदगी हम फ़क़िरों से क्या ले गई
मेरी मुट्ठी में सूखे हुए फूल हैं
खुश्बुओं को उड़कर हवा ले गई
मैं समुंदर के सिने में चट्टान था
रात एक मौज आई बहा ले गई
हम जो काग़ज़ थे अश्कों से भीगे हुए
क्यों चिरगों के लाउ तक हवा ले गई
चाँद ने रात मुझको जगा कर कहा
एक लड़की तुम्हारा पता ले गई
मेरी शोहरत सियासत से महफ़ुस है
ये तवायफ़ भी इस्मत बचा ले गई
Zindagi Shayari-6
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगाने लगे हैं अजीब से
इस रेंगति हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
हर घाम पर है मजमा-ए-उशशाक़ मुंतज़ीर
मक़ताल की रह मिलती है कू-ए-हबीब से
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से
आए रूह-ए-असर जाग कहाँ सो रही है तू
आवाज़ दे रहे हैं पायांबर सलीब से
Zindagi Shayari-7
खूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जींस-ए-उलफत का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फिटना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं
छेड़ती है जिसे मिज़रब-ए-आलम
साज़-ए-फितरत का वोही तार हूँ मैं
ऑयिब जो हाफ़िज़-ओ-ख़य्याम में था
हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं
ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं
मेरी बातों में मसीहाई है
लोग कहते हैं की बीमार हूँ मैं
एक लपकता हुआ शोला हूँ मैं
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं
Zindagi Shayari-8
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीयत कभी कभी
आए दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़तिरब
मिलती है ज़िंदगी में ये रहट कभी कभी
तेरे करम से आए आलम-ए-हुस्न-ए-अफ्रिं
दिल बन गया है दोस्त के खिलवट कभी कभी
दिल को कहाँ नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़तिरब
मिलती है ज़िंदगी में ये रहट कभी कभी
जोश-ए-जुनून में दर्द के तुगायनियों के साथ
अश्कों में ढाल गई तेरी सूरत कभी कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमैन ना था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी कभी
कुछ अपना होश था ना तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फुरक़त कभी कभी
आए दोस्त हम ने तर्क-ए-मुहब्बत के बावजूद
महसूस के है तेरी ज़रूरत कभी कभी.
Zindagi Shayari-9
रात आई दर्द की चादर लिए हुए
सोए रहे यह बोझ पलकों पर लिए हुए
रास्ते में मुझको बे-घर देख कर
दोस्त आए है हाथ में पत्थर लिए हुए
आज उसके सामने जाएँगे हम
अपने ही हाथों में अपना सिर लिए हुए
मेरी आँख उमेर भर हस्ती रही
एक सुहाने ख्वाब का मंज़र लिए हुए
लोग आपस में गले मिलते रहे
आस्तीनों में च्छूपे हुए खंज़र लिए हुए
गर्दिशें तो एक बहाना थी मगर
ख्वाहिशें फिरती रही दर दर लिए हुए
तेरी राह ताकते रहे पर तू नही आइए
बैठे रहे तेरी महफ़िल में खाली जाम लिए हुए
ढलती दिख रही है ज़िंदगी की घड़ियाँ
कोई आ रहा है हाथों में मौत का पघम लिए हुए
Zindagi Shayari-10
कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िंदगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ ना कोई कम मामूल से
गुज़री शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये रह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुए बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मूड मूड के देखा किया दूर तक
बनी वो खामोशी सदा देर से
सज़ा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालत भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से
भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली ना कहीं से कोई रोशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
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